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हाल ही में मिथिला लोक फाउंडेशन ने मैथिली के प्रसिद्ध गायक विकास झा को अपना ब्रांड एम्बेसडर बनाया है। गौरतलब है कि झा मैथिली के जाने-माने गायक हैं और बॉलीवुड में भी अपनी पहचान बनाई है। एक समय काफी तेजी से ऊंचाइयों की तरफ बढ़ रहे मैथिली कलाकार, वैश्वीकरण के इस दौर में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते नजर आ रहे हैं। यहां तक कि कई कलाकारों ने समय रहते भाषाई प्रेम को ताक पर रखकर किसी और भाषा के जरिए अपने बुलंदियों को छुआ है।
हाल ही में बॉलीवुड गायक उदित नारायण को जब पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया, तो ऐसा लगा कि मैथिली से गाने की शुरुआत करने वाले उदित नारायण ने हिंदी की तरफ रुख कर एक सही फैसला ही लिया, लेकिन सवाल उठता है कि क्या क्षेत्रीय भाषाओं के लिए इससे बेहतर स्थिति नहीं हो सकती है? इन सवालों के बीच मिथिलालोक ने जाने-माने मैथिली गायक को अन्य भाषाओं के ऊपर वरीयता देकर एक सराहनीय काम ही किया है।
बॉलीवुड कलाकार नरेंद्र झा के इस मुहिम से जुड़े होने के बाद भी एक मैथिली कलाकार को यह जिम्मेदारी सौंपना न सिर्फ भाषायी प्रेम को दर्शाता है, बल्कि इस पूरे मुहिम की सार्थकता को भी प्रदर्शित करता है। आपको बता दें कि सामाजिक , सांस्कृतिक और आर्थिक विकास के लिए मिथिलालोक ने पाग बचाउ अभियान का शुभारम्भ किया है। यह अभियान खास इसलिए है कि इसके जरिए जाति, धर्म और लिंग सहित सभी तरह के भेदभाव को मिटाते हुए इसने पाग को एक अलग पहचान देने की कोशिश की है।
आज के इस वैश्विक और आर्थिक युग में पिछड़ चुके मिथिलांचल को बराबरी पर लाने के लिए न सिर्फ प्रेरणा की जरूरत है, बल्कि इसके लिए इच्छाशक्ति का होना भी जरूरी है। गायक विकास झा और 'मिथिलालोक' फाउंडेशन के चेयरमैन डॉo बीरबल झा युवाओं के आइकॉन हैं और ऐसे में मिथिला की सांस्कृतिक पहचान ‘पाग’ एक क्रांतिकारी बदलाव लेकर आए तो कोई हैरानी नहीं होगी।
ऐसा नहीं है कि मैथिली भाषा के उत्थान के लिए पहले कोई प्रयास नहीं होता रहा है, लेकिन यह काम अब तक ज्यादातर कागजों पर ही होता रहा है। जब 2002 में मैथिली भाषा को संविधान के आठवीं अनूसूची के तहत जोड़ा गया तो ऐसा लगा कि शायद अब इस भाषा की स्थिति में सुधार देखने को मिले, लेकिन आज भी मैथिली भाषा को बढ़ावा देने वाले सबसे सशक्त माध्यमों में से एक मैथिली फिल्म उद्योग ही हाशिए पर है।
आज स्थिति यह है कि युवा वर्ग को इस तरफ कोई रुचि नहीं है, बुजुर्ग भी अपने बच्चों को इस क्षेत्र में बढ़ावा देने के लिए कोई पहल नहीं कर रहे हैं। हर घर में मनोरंजन के आधुनिक संसाधनों के बीच यह गुम सी हो गई है और इस कारण मैथिली कलाकार आज अपनों के बीच ही खो गए हैं। ऐसा नहीं कि मैथिली हमेशा से गुमनामी के अंधेरे में रहा हो, इसका इतिहास काफी गौरवशाली रहा है।
मैथिली नाटक को पहले काफी प्रोत्साहित किया जाता था, लेकिन धीरे-धीरे लोगों का लगाव कम होता गया। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यह था कि यह मनोरंजन का साधन तो जरूर बना, लेकिन यह कभी भी लोगों के रोजगार या जीविकोपार्जन का साधन नहीं बन सका और इस वजह कलाकारों ने वक्त बर्बाद करने के बजाए रोजी-रोटी की तलाश में पलायन कर न सिर्फ अन्य भाषाओं की तरफ गए बल्कि अन्य प्रदेशों में जाकर बस भी गए। जहां तक अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की बात है तो तमिल, तेलगू, मराठी और बांग्ला सहित अन्य भाषाओं के कलाकार कहां तक पहुंचे, यह किसी से छिपा नहीं है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि बौद्धिक संपदा के धनी होने के बावजूद मिथिला क्षेत्र विकास के उस मुकाम को पाने से वंचित रह गया, जिसका कि वह हकदार है। दरभंगा महाराज से लेकर कई राजा-रजवाड़ों में शामिल यह मिथिला क्षेत्र, जिसके पास वो सभी संपदाएं थीं, जो कि किसी भी क्षेत्र के विकास के लिए जरूरी होता है, लेकिन विकास की इस दौर में पिछड़ गया और इसके कई कारण भी है।
समस्त मिथिलांचल गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन और उपेक्षा रूपी गुलामी की जंजीर में जकड़ा सा लगता है और इसे शिक्षित, पूर्ण विकसित और शक्तिशाली राज्य बनाने के लिए एक बड़े आंदोलन की जरूरत है। हालांकि मैथिली कलाकारों में अब भी भाषा के जीवंत होने की आस बरकरार है।
विकास झा कहते हैं कि अभी भी उम्मीद है कि इस भाषा को नई ऊंचाई तक ले जाया जा सकता है। हालांकि झा कहते हैं कि इसे सिर्फ संस्कृति से नहीं जोड़ा जा सकता है, बल्कि इस पूरे मुहिम को मिथिला के समग्र विकास से जोड़ा जाएगा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश के सभी क्षेत्रों की भांति मिथिलांचल भी अपनी तरक्की कें इंतजार में टकटकी लगाए बैठा है।
यहां के लोगों को भी उम्मीद है कि आने वाले समय में यह क्षेत्र भी अपनी ऊंचाइयों को प्राप्त करेगा। मैथिली कलाकारों की अगर मानें तो उनका कहना है कि मैथिली भाषा भाषियों का क्षेत्र व्यापक होने के बावजूद मैथिली फिल्म उद्योग को ओछी राजनीति का शिकार होना पड़ रहा है। कई बार भोजपुरी फिल्मों के साथ प्रतियोगिता भी मैथिली फिल्मों के लिए घातक हो जाता है।
कलाकार बताते हैं कि किसी मैथिली फिल्म के निर्माण होने पर इसके वितरकों को भी अप्रत्यक्ष रूप से दबाव दिया जाता है कि वे मैथिली फिल्म का वितरक नहीं बने, ताकि भोजपुरी फिल्म को बढ़ावा मिल सके। जाहिर है किसी भी कलाकार के पास अपनी पहचान बनाने के मौके बहुत कम होते हैं, अगर किसी को लोकप्रिय होना है तो उसे सिनेमा, रंगमंच या टेलिविज़न का सहारा लेना पड़ता है, लेकिन मैथिली भाषा में इन सबका अभाव निश्चित रूप से एक चिंता का कारण है।
सोशल मीडिया का यह युग कलाकारों के लिए राहत पैकेज लेकर आया है, जहां कुछ उम्मीदें जरूर टिकी है। मिथिलांचल की कला और संस्कृति को बतौर फिल्मी परदे पर नहीं दिखाए जाने से एक तरफ जहां यहां के कलाकारों में रोष देखा जा सकता है, वहीं दूसरी तरफ लोगों का आक्रोश भी देखा जा सकता है। लेकिन सरकारी उपेक्षा, संसाधनों के अभाव और बिचौलियों की सक्रियता के चलते इन कलाकारों के लिए लागत निकालना भी मुश्किल होता है।
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